टी-सीरीज़ और रेट्रोफाइल द्वारा संयुक्त रूप से निर्मित बहुचर्चित एवं बहुप्रतीक्षित फ़िल्म “आदिपुरुष” न केवल इस साल की बल्कि इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से अब तक की बॉलीवुड की सबसे ज्यादा विवादित फ़िल्म रही है। व्यथित दर्शकों ने फ़िल्म देखना बंद कर इसका बॉक्स ऑफिस कलेक्शन 86.5 करोड रुपये प्रतिदिन से 5.25 करोड रुपये प्रतिदिन के स्तर तक गिरा दिया। एक सप्ताह के भीतर-भीतर फ़िल्म के शो मुंबई के गेयटी गैलेक्सी जैसे प्रसिद्ध थिऎटर्स में कैंसिल होने लगे। ऐसे समय में जब भारत में माहौल राममय है, जब हिंदू संस्कृति के उत्थान की लहर चल रही है, रामायण की रामकथा को ‘मॉर्डन’ बनाकर नये सिरे से प्रस्तुत करने वाली इस फ़िल्म को जिस तरह दर्शकों ने नकार दिया, जिस तरह हिमालय से समुद्र पर्यंत इस फ़िल्म को पूरे भारत में आलोचना, निंदा एवं उपहास का समना करना पडा वह अभूतपूर्व है जिसकी विवेचना होना अत्यंत आवश्यक है।
फ़िल्म को पराया बनाता है टाइटल- ‘आदिपुरुष’
वस्तुतः फ़िल्म की समस्याएं इसके टाइटल के साथ ही शुरू हो जाती हैं। भारतीय संस्कृति के हजारों वर्षो के इतिहास में ‘राम’ को कभी ‘आदिपुरुष’ के रूप में नहीं देखा गया। जन-मानस में राम की छवि सदैव ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ की रही है किंतु फ़िल्म राम को ‘आदिपुरुष’ के सांचे में ढाल कर जिस तरह प्रस्तुत करती है उससे दर्शकों को परायेपन का बोध होता है, जो कि पूरी फ़िल्म में लगातार बढता ही जाता है। परिणामस्वरूप दर्शक फ़िल्म के साथ आत्मीयता से जुड नहीं पाते हैं। भारत के ‘आदिपुरुष’ वास्तव में ‘स्वायंभुव मनु’ हैं जिनसे सभ्यता की शुरुआत होती है। मनु की स्मृति में ‘मनुष्य’, ‘मानव’, ‘मैन’ एवं वुमैन जैसे शब्द बने, जिनसे न केवल भारत की अपितु यूरोपीय सभ्यता की भी पहचान बनती है किंतु फ़िल्म के लेखकद्वय -मनोज मुंतशिर एवं ओम राउत इस महीन अंतर को समझने में असफ़ल रहे।
बेमेल रही स्टार कास्ट
फ़िल्म में राम की भूमिका निभाने वाले प्रभाष वैसे तो बहुत लोकप्रिय हैं किंतु उनका छः फ़ुट का ऊंचा कद एवं गोरा रंग राम के चरित्र से मेल नहीं खाता है। वाल्मीकि दसरथ के समकालीन थे। उन्होंने राम को अपनी आंखों से देखा था। उन्होंने बताया है कि राम कैसे धीर-गंभीर, श्याम वर्ण, मध्यम कद के सुगठित व्यक्तित्व के स्वामी थे। इसी प्रकार सीता जी, भाई लक्ष्मण, सखा हनुमान जी यहां तक कि शत्रु रावण की शारीरिक बनावट का भी जीवंत वर्णन उन्होंने दिया है। हनुमान एवं रावण को दिए गए गेट-अप से जनता को सबसे अधिक शिकायत रही। जनता रावण के गेट-अप को कुछ वर्षों पहले आई फ़िल्म पद्मावत के खलनायक अलाउद्दीन खलजी के सादृष्य पाती थी। इन सभी पात्रों के गेट-अप का जमकर मजाक उडाया गया, मीम बने और वायरल किए गए। वाल्मीकि द्वारा किया गया चित्रण आगे चलकर भारत की ऐतिहासिक मूर्तिकला, मंदिरों एवं स्तूपों की दीवारों पर अंकित दृष्यों में प्रतिबिंबित होता है, जिसका कोई लाभ ‘आदिपुरुष’ की टीम नहीं उठा सकी। टीम ने उस समर्पण एवं गंभीरता के साथ काम नहीं किया जिसकी अपेक्षा उनसे थी ।
रामकथा संवेदनशीलता मांगती है, जो नहीं दिखी
आदिपुरुष की टीम ने अपना होम-वर्क ठीक से नहीं किया। यदि करते तो उन्हें पता रहता कि आजादी के बाद जिस किताब पर भारत में सबसे पहला प्रतिबंध लगाया गया था वह भी विद्रूप रामकथा ही थी। औबरे मेनन द्वारा अंग्रेजी में लिखी गयी इस किताब का टाइटल था ‘Rama Retold’ जिस पर नेहरू सरकार ने साल 1955 में ही प्रतिबंध लगा दिया था। इसी तरह अमेरिकी लेखक मार्क रॉबसन की किताब ‘Nine Hours to Rama’ जिसमें गांधी के अंतिम वाक्य ‘हे राम’ को टाइटल बनाकर गांधी की विचारधारा का माखौल उडाया गया था उसे भी नेहरू सरकार ने सन् 1962 में प्रतिबंधित कर दिया था। यह सभी उदाहरण आदिपुरुष की टीम के सामने थे किंतु टीम मानों किसी अलग ही दुनिया में आत्म-मुग्धता का शिकार होकर असंवेदनशील हो चुकी थी ।
‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ राम, भारत के जन-जन में बसते हैं। भारत की मिट्टी के कण-कण में राम के आदर्श एवं सीता के त्याग की सुगंध बसती है। भारतीय जनता जो शताब्दियों से वर्ष-प्रतिवर्ष रामलीला देखती रही है। वह नाट्यरूपांतरण, नाट्य प्रस्तुतीकरण, मंच की साज-सज्जा के प्रति पैनी समझ रखती है। रामकथा स्मरण कराने के लिये उसे किसी फ़िल्म या पुस्तक की आवश्यकता नहीं है।यदि कोई फ़िल्म बनती है तो जनता यह देखने के लिये थियेटर जाती है कि पहले से कितने अच्छे तरीके से रामकथा को फ़िल्माया गया है। जनता की जिज्ञासा का विषय एवं मापदंड होता है कि उसके मन में जो राम-जानकी बसे हुए हैं उनसे फ़िल्म के पर्दे पर दिखाये गये राम-जानकी कितना मेल रखते हैं। किसी योग्य सलाहकार के अभाव में आदिपुरुष की टीम इस बिंदु पर धोखा खा गई ।
भारत के लोग रामकथा के प्रति कितने संवेदनशील हैं, इस बात को फ़िल्म के निर्माता, निर्देशक, पटकथा एवं संवाद-लेखक भांप नहीं सके। फ़िल्म निर्माण की टीम यदि रामकथाओं की अविरल धारा का व्यापक अध्ययन करती तो उसे यह ज्ञात होता कि जहां भारतीय जनमानस ने लगातार रामकथाओं की समयानुकूल नवीन कलेवर में की गई प्रस्तुति को सहज स्वीकार किया, वहीं रामकथा के मूल प्रवाह – ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, इस पृष्ठभूमि पर आधारित कथानक, राम एवं सीता द्वारा स्थापित उच्च मानवीय आदर्शों के साथ किसी प्रकार की छेडछाड बर्दाश्त नहीं की। जिसके कई उदाहरण हैं।वाल्मीकि ने यद्दपि नहीं लिखा किंतु तमिल कवि कंब ने यह प्रसंग जोडा कि राम ने लक्ष्मण को मृत्यु शैया पर पड़े हुए राक्षस रावण से राजनीति की शिक्षा लेने के लिये भेजा था। इसी प्रकार बंगाल के कवि कृत्तिवास ओझा ने राम द्वारा की गयी देवी पूजा का कथानक जोडा जिसे महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने ‘राम की शक्ति पूजा’ पद्य रच कर अमर कर दिया। इन सब प्रसंगों में रामायण की मूल कथा का विस्तार अवश्य हुआ किंतु मूल कथा की पवित्रता बनी रही। इसलिए आम जनता ने इन्हें सहजता से अपना सकी ।
टीम आदिपुरुष की धृष्टता
यह जानना भी आवश्यक है कि पिछले वर्ष आदिपुरुष के पहले टीजर के जारी होने के अवसर पर फ़िल्म में रावण बने सैफ़अली खान ने एक अखबार को दिए इंटरव्यू में खुलासा किया था कि फ़िल्म में रावण को अधिक मानवीय बनाया जा रहा है। जिससे पूरी टीम की नीयत पर गंभीर प्रश्न उठते हैं, जो रावण अमानुष था जिसकी ऐतिहासिकता असंदिग्ध है, उसे किस खोज के आधार पर यह टीम मानवीयता का लबादा पहनाना चाहती थी प्रश्न अब तक अनुत्तरित है।
फ़िल्म के संवाद लेखक मनोज मुंतशिर एवं ओम राउत ने फ़िल्म के बचाव में आवश्यक विनम्रता का प्रदर्शन न कर ऐसे कुतर्क गढे जिससे जनता का आक्रोश कम होने की बजाय और भी बढता गया। मनोज मुंतशिर ने हनुमान जी के लिये अशोभनीय सतही संवाद लिखे जिनकी सराहना किसी ने भी नहीं की। ऊपर से कुंठाग्रस्त होकर हनुमान जी के बारे में जो कि ‘बुद्धिमतां वरिष्ठम’ एवं ‘ज्ञान गुण’ के सागर हैं, कई टीवी चैनल्स पर धृष्टतापूर्वक बार-बार कहा कि हनुमान जी राम कथा की परंपराओं में दार्शनिक एवं सुसंस्कृत भाषा का प्रयोग करते हुए नहीं दिखाए जाते हैं, बल्कि वे बच्चों जैसी चंचल एवं अनगढ भाषा का प्रयोग करते दिखाये जाते हैं, जो कि नितांत असत्य कथन था।
मनोज मुंतशिर की धृष्टता से संदेह होता है कि शायद उसने वाल्मीकि रामायण में निहित हनुमान जी का चरित्र कभी पढा ही नहीं था क्योंकि वाल्मीकि रामायण में हनुमान जी ही ‘संस्कृत’ भाषा को ‘संस्कृत’ नाम देते हैं। वे संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं का सम्यक ज्ञान रखते थे। आज के इस दौर में यदि ऐसे सतही लेखक रामायण की पटकथा एवं संवाद लिखने लगें तो यह कहना कि फ़िल्म की असफ़लता सुनिश्चित ही रहेगी, अतिशयोक्ति नहीं होगी।
कुलमिलाकर ‘आदिपुरुष’ भारतीय दर्शकों की अपेक्षा पर खरी नहीं उतर सकी। लंबे समय से प्रतीक्षारत दर्शकों को भीतर तक आहत कर यह फ़िल्म किसी डरावने स्वप्न की तरह मन-मस्तिष्क से उतर कर बॉक्स ऑफिस पर भी पिट गई तथा अपने पीछे कड़वी यादें छोड गई जिनसे कुछ सीखा अवश्य जा सकता है।
आलोचना के प्रतिमान कबीर एवं भक्ति के शिखर गोस्वामी तुलसीदास दोनों ही राम के प्रति समर्पित रहे।
संस्कृत में लिखे गये प्रसिद्ध नाटक दशरूपकम् के लेखक धनंजय ने सभी नाटक लिखने वाले लेखकों को रामायण का अनुशीलन करने का सुझाव दिया है।
