हिंदुत्व की धुन पर सियासत में झूम रही बीजेपी सरकार ने बंद बोतल से समान नागरिक संहिता का जिन्न भी निकाल दिया है। हिंदुत्व को लेकर बीजेपी का यह आखिरी कोर मुद्दा है हाल ही में लॉ कमीशन ने लोगों से समान नागरिक संहिता पर राय मांगी है।
लोगों की राय लेने के बाद लॉ कमीशन अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपेगी। इधर, लॉ कमीशन के नोटिफिकेशन की टाइमिंग पर सवाल उठ रहे हैं। इसके पीछे आगामी विधानसभा और लोकसभा के चुनाव को वजह माना जा रहा है।
विपक्षी पार्टियां इसे सियासी ध्रुवीकरण के लिए उठाया गया कदम बता रही हैं। कांग्रेस का कहना है कि सरकार तुष्टिकरण के जरिए वोट बटोरना चाहती है। बीजेपी समान नागरिक संहिता को समय की जरूरत बता रही है।
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि आने वाले दिनों में समान नागरिक संहिता की गूंज देश के सियासी पटल पर जरूर सुनाई देगी। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या यह हथियार बीजेपी के मिशन-24 के लिए फायदेमंद साबित होगा?
समान नागरिक संहिता क्या है, लागू होने से क्या बदलेगा?
शादी, तलाक, उत्तराधिकार और गोद लेने के मामलों में भारत में अलग-अलग समुदायों में उनके धर्म, आस्था और विश्वास के आधार पर अलग-अलग कानून है। यूसीसी का मतलब एक देश, एक कानून यानी देश में रहने वाले सभी नागरिकों के लिए एक कानून होना है। साफ है, समान नागरिक संहिता लागू हुआ तो शादी और संपत्ति बंटावरे पर सबसे अधिक फर्क पड़ेगा।
वर्तमान में भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872, नागरिक प्रक्रिया संहिता, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882, भागीदारी अधिनियम, 1932, साक्ष्य अधिनियम, 1872 जैसे मामलों में सभी नागरिकों के लिए एक समान नियम लागू हैं, लेकिन धार्मिक मामलों में सबके लिए अलग-अलग कानून लागू हैं और इनमें बहुत विविधता भी है।
देश में सिर्फ गोवा एक ऐसा राज्य है जहां पर समान नागरिक कानून लागू है।
समान नागरिक संहिता लागू करना आसान नहीं, क्यों?
समान नागरिक संहिता लागू करना आसान भी नहीं है। इसकी वजह है- संविधान का अनुच्छेद 25। इस अनुच्छेद में कहा गया है कि कोई भी अपने हिसाब से धर्म मानने और उसके प्रचार की स्वतंत्रता की रखता है।
सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती बनाम भारत सरकार में कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 1-32 तक के मूल भाव से छेड़छाड़ नहीं किया जा सकता है। समान नागरिक संहिता का विरोध पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत के रहवासी भी करते हैं।
लॉ कमीशन की रिपोर्ट और नोटिफिकेशन में क्या है?
पैनल ने एक ‘सार्वजनिक नोटिस’ में कहा, ‘चूंकि समान नागर संहिता पर पत्र जारी होने की तारीख से तीन साल से ज्यादा समय बीत चुका है इसलिए विषय की प्रासंगिकता और महत्व को ध्यान में रखना जरूरी है। इस विषय पर विभिन्न अदालती आदेशों को ध्यान में रखना पड़ेगा।
2018 में लॉ कमीशन ने कहा था कि अभी समान नागरिक संहिता लाना मुमकिन नहीं है। इसके बजाय मौजूदा पर्सनल लॉ में सुधार किया जा सकता है। आयोग के मुताबिक मौलिक अधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता में संतुलन बनाए रखने की जरूरत है।
समान नागरिक संहिता पर अदालत ने क्या कहा है?
सुप्रीम कोर्ट (अक्टूबर 2015) – देश में अलग-अलग पर्सनल लॉ की वजह से भ्रम की स्थिति बनी रहती है। सरकार चाहे तो एक जैसा कानून बना कर इसे दूर कर सकती है। क्या सरकार ऐसा करेगी? अगर आप ऐसा करना चाहते हैं तो आपको ये कर देना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट (सितंबर 2019) -भारत में अब तक यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने के लिए कोई कोशिश नहीं की गई है। जबकि संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 44 में नीति निर्देशक तत्व के तहत उम्मीद जताई थी कि भविष्य में ऐसा किया जाएगा।
दिल्ली हाईकोर्ट (जुलाई 2021) -जस्टिस प्रतिभा एम. सिंह ने कहा कि देश में यूनिफार्म सिविल कोड लागू होना चाहिए। आज का भारत धर्म, जाति, समुदाय से ऊपर उठ चुका है। आधुनिक हिंदुस्तान में धर्म-जाति की बाधाएं भी खत्म हो रही हैं। इस बदलाव की वजह से शादी और तलाक में दिक्कतें भी आ रही हैं। आज की युवा पीढ़ी इन समस्याओं से जूझे यह सही नहीं है।
समान नागरिक संहिता बीजेपी का कोर मुद्दा
समान नागरिक संहिता का मसला जनसंघ के जमाने से ही उठता रहा है। बाद में बीजेपी ने इसे मेनिफेस्टो में शामिल कर लिया। बीजेपी का मानना है कि जब तक भारत में समान नागरिक संहिता को अपनाया नहीं जाता है, तब तक लैंगिक समानता कायम नहीं हो सकती है।
समान नागरिक संहिता, सभी महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करती है। बीजेपी सर्वश्रेष्ठ परम्पराओं से प्रेरित समान नागरिक संहिता बनाने को कटिबद्ध है। जिसमें उन परम्पराओं को आधुनिक समय की जरूरत के मुताबिक ढाला जाए। बीजेपी ने 1991 और 1996 के चुनाव में अपने घोषणापत्र में भी इसे शामिल किया था।
भाजपा के लिए कितना फायदेमंद है समान नागरिक संहिता?
सियासी गलियारों में इसी सवाल का जवाब ढूंढा जा रहा है कि समान नागरिक संहिता का मुद्दा भाजपा के लिए कितना फायदेमंद साबित होगा? आइए इसे विस्तार से जानते हैं…
- हिंदुत्व का मुद्दा उठा तो 76 सीटों का फायदा हुआ
1990 का दशक भाजपा के लिए संघर्ष भरा रहा। राम मंदिर आंदोलन के बाद पार्टी ने रफ्तार पकड़ ली। 1989 के चुनाव में भाजपा को 85 सीटों पर जीत मिली, लेकिन कारसेवा के बाद परिदृश्य ही बदल गया।
1991 के चुनाव में भाजपा ने राम मंदिर समेत हिंदुत्व के 3 मुद्दों को सियासी पटल पर रखा। भाजपा एक देश, एक विधान के नारे के साथ चुनाव मैदान में उतरी। पार्टी को देश की 120 सीटों पर जीत मिली।
1996 में भाजपा की किस्मत ही बदल गई और देश की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। भाजपा को लोकसभा की 161 सीटों पर जीत मिली। पहली बार पार्टी की ओर से अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। हालांकि, 13 दिनों में ही सरकार गिर गई।
1996 में भाजपा को मध्य प्रदेश, बिहार, हरियाणा और महाराष्ट्र समेत 6 राज्यों में जबर्दस्त जीत मिली। सिर्फ इन 6 राज्यों में पार्टी को 48 सीटों की बढ़त मिली।
वर्तमान में सियासी परिदृश्य बिल्कुल बदला हुआ है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और बिहार में बीजेपी कमजोर स्थिति में है। ऐसे में पार्टी फिर से इस मुद्दे को सियासी पटल पर लाकर गेम बदलने में जुटी है।
अगर समान नागरिक संहिता पर बीजेपी की रणनीति सफल रहती है तो 265 सीटों का गणित बदल सकता है।
- मंडल को कमजोर करने के लिए कमंडल की स्ट्रैटजी
1990 में जाति कार्ड के मुकाबले भाजपा ने धर्म का कार्ड खेला था। सियासी गलियारों में इसे मंडल वर्सेस कमंडल की लड़ाई बताई गई। 2024 के चुनाव से पहले विपक्षी दल मंडल के मुद्दे को फिर से तूल दे रहे हैं। विपक्ष के कई दल जातीय जनगणना की मांग कर रहे हैं।
मंडल की काट में बीजेपी भी कमंडल के मुद्दे को तरजीह देने की रणनीति पर काम कर रही है। अनुच्छेद-370 और तीन तालाक का मुद्दा अब पुराना हो चुका है। राम मंदिर का निर्माण जारी है। ऐसे में एकमात्र समान नागरिक संहिता का मुद्दा ही बीजेपी के पास बचा हुआ है।
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि भाजपा पुराने मुद्दे के साथ इसको उठा रही है, जिससे विपक्षी मुद्दे को डायवर्ट कर दिया जाए। ऐसी स्थिति में विपक्ष का सबसे बड़ा मुद्दा जातीय जनगणना कुंद पड़ जाएगा।

कार्यकारी संपादक