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तैरते हुए बर्फ और पानी का रिश्ता

संघ की शैली है, विरोधी का किरदार भी खुद ही निभाना। ताकि किसी तीसरे को मौका न मिले। तैरते बर्फ और पानी के बीच जो रिश्ता है वही संघ और भाजपा का है। यह संघ को ही पता है- भाजपा कहां शुरू है, कहां खत्म है। संघ की प्रचार मैग्जीन आर्गनाइजर ने मोदी सरकार को लेकर खरी- खरी बातें सुनाई हैं। अपनी अंदरूनी सोच को बताने का संघ का यही तरीका है।

संघ मान रहा है कि मोदी का करिश्मा अब थक चुका है। हिंदूत्व की धार बेअसर हो रही है। भाजपा की स्थानीय लीडरशीप हाशिए पर चली गई है। कर्नाटक में भ्रष्टाचार को लेकर मोदी सरकार को बचाव में आना पड़ा है। 2024 को लेकर यह बेचैनी है। इन हालातों के भरोसे चुनाव नहीं जीता जा सकता। कर्नाटक की हार ने संघ को झटका दिया।

अपनी सरकार को जमीन दिखाना संघ का काम है, जिसे मोदी सत्ता के इन 9 सालों में बहुत कम बार वह कर पाया है।अटलजी की सरकार में यह खूब होता था। विदेशी निवेश के खिलाफ स्वदेशी जागरण मंच मैदान पकड़े ही रहता था। मजदूर संघ, किसान संगठन आए दिन सरकार पर दबाव बनाए रखते थे। संघ सरकार के साथ भी सरकार के विरोध में भी दिखाई देता था।

पर मोदी काल में ऐसा कोई नज़ारा नहीं है। मोदी सरकार पर दबाव या विरोध अब संघ के भीतर भी संभव नहीं है। संघ-भाजपा की गाड़ी में ड्राइविंग सीट पर संघ नहीं मोदी हैं। वजह गहरी है, मोदी संघ के पूर्णकालिक प्रचारक हैं। याने अपना घरबार छोड़कर पूरा जीवन संघ को देने वाले। उस लिहाज से वे संघ प्रमुख मोहन भागवत से भी वे सीनियर हैं। संघ प्रमुख के पिता याने मधुसूदन भागवत मोदी की युवा अवस्था में उनके मेंटोर याने अभिभावक रहे हैं। मोदी उन्हीं के घर पर रहे हैं। मराठी और गुजराती बोलने वाले सीनियर भागवत ने गुजरात में डेढ़ सौ से ज्यादा शाखाएं शुरू कर संघ के नेटवर्क को मजबूत किया। जिसमे युवा मोदी भी तैयार हुए। कहा तो यहां तक जाता है कि अगर मोदी भाजपा में नहीं भेजे जाते तो संघ प्रमुख के बतौर दावेदार होते।

संघ और मोदी के बीच यह हालात बिलकुल वैसे ही हैं, जैसे अटलजी-आडवाणी और केपी सुदर्शन के दौर में थे। अटलजी-आडवाणी दोनों ही संघ पदाधिकारियों से सीनियर थे। लेकिन सुदर्शन की कार्यशैली सरकार को जब-तब आईना दिखाने की थी। जिसके चलते संघ का विरोध भी दर्ज होता था। पर मोदी राज में संघ के किसी भी अनुशांगिक संगठन के लिए यह संभव नहीं है कि वह मोदी सरकार के खिलाफ मैदान पकड़े। भाजपा ही नहीं संघ भी मोदी के आभामंडल में सिमट गया।

वजह है- 2014 के बाद मोदी का करिश्मा। जिसने संघ के सबसे चहेते राजनीतिक संगठन को 36 फीसदी याने 25 करोड़ वोटरों में तब्दील कर दिया। बाबरी मस्जिद कांड के बाद भी भाजपा को सिर्फ 25 फीसदी वोट मिले थे। अटलजी राजनेता के तौर पर सबसे लोकप्रिय चेहरा थे लेकिन जनता को वोट में तब्दील करने का हुनर वे नहीं जानते थे। ये तो लालकृष्ण आडवानी थे जिन्होंने रथ-यात्रा के साथ हिंदुत्व की राजनीति का हथियार तैयार किया। इसके बाद भाजपा का रथ नहीं रूका लेकिन फिर भी 2004 के बाद भाजपा 10 साल के लिए झटका खा गई।

जिस सोनिया गांधी को विदेशी कहकर बेदखल करने की कोशिश हुई, वही सोनिया, गठबंधन राजनीति का वह चेहरा बनकर उभरीं जिसने देश के 22 राजनीतिक दलों को जोड़कर भाजपा के शाइनिंग इंडिया पर अंधेरा ला दिया।

2014 में आडवाणी की हताश लीडरशीप को पूरी ताकत से नकारते हुए संघ ने अपने पूर्णकालिक प्रचारक मोदी पर दांव खेला। संघ के लिए इससे बड़ा सुनहरा मौका नहीं हो सकता था। जब वह अपने 100 साल पूरे करने से पहले अपने कट्‌टर प्रचारक को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाए। यह 9 साल संघ के तमाम एजेंडे को पूरा करने वाले रहे हैं। अयोध्या में राम मंदिर हो, धारा 370 को हटाने का मामला हो, समान नागिरकता का मुददा हो या अघोषित तौर पर देश को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने का सपना हो, मोदी वह सब करते रहे।

अब अगर संघ, मोदी और हिंदूत्व पर सवाल उठा रहा है, राज्यों की लीडरशीप की बात कर रहा है, भ्रष्टाचार की बात कर रहा है तो उसे अपने भीतर भी झांकना होगा। संघ वोट और सत्ता की राजनीति में कहां फंसा हुआ है। कर्नाटक की हार में वह कहां शामिल है। संघ भाजपा की अम्मा है, तो उसे कैसी भाजपा चाहिए। उसे जनाधार वाली लीडरशीप चाहिए या फिर संघ की विचारधारा से जुड़े शाखा से निकले नेता चाहिए।

मोदी राज में चुनावी राजनीति में सबसे ज्यादा संघ की गुडबुक वाले कट्‌टर स्वयंसेवकों को महापौर, राज्यसभा, विधानसभा, लोकसभा, टिकट दिए गए हैं। मुख्यमंत्री तक के पद दिए गए हैं। यह मोदी के करिश्मे में ही संभव था कि संघ अपने अजनबी चेहरों पर दांव खेले और चुनाव जीतवा दे। जहां-जहां भाजपा की सरकारे हैं वहां निगम मंडलों से लेकर मलाईदार जगहों पर संघ ने अपने कैडर को बैठाया है। सरकार भाजपा की नहीं संघ की चल रही है इसका भी खुला संदेश दिया है। संघ के पदाधिकारी मुख्यमंत्री के समानांतर ताकत के साथ सक्रिय देखे गए हैं।

यहीं हाल कर्नाटक में था। जिस 40 फीसदी भ्रष्टाचार के आरोप में बोम्मई सरकार गई, उसे वक्त रहते संघ ने भी नहीं देखा। जबकि संघ का सबसे मजबूत कैडर कर्नाटक में है। संघ की टॉप लीडरशीप भी कर्नाटक से है। हिंदूत्व से आगे भ्रष्टाचार भी मुद्दा हो सकता है यह संघ के लिए भी नया सबक है। अजान-हिजाब, मुस्लिम आरक्षण खत्म कर अपना एजेंडा साध रहे संघ ने बोम्मई के भ्रष्टाचार पर आंख नहीं धरी।

अब संघ हिंदूत्व को बोथा हो चुका चुनावी हथियार बता रहा है। पर, कुछ महीने पीछे मुड़कर देखें तो यहीं इसी संघ ने अपने संघप्रमुख के माध्यम से उफान पैदा करते हुए कहा था, “हिंदूओं की आक्रामकता जागरूकता का नतीजा है। हिंदू एक हजार साल से युध्द कर रहा है। उसका आक्रामक होना स्वाभाविक है। मुसलानों को हम बड़े हैं यह भाव छोड़ना होगा।” एक तरह से यह हिंदू उग्रवाद को पनाह देने की बात थी।

अब वही कर्नाटक के नतीजों ने कहानी बदल दी। अब संघ मान रहा है कि नफरत और हिंदूत्व की राजनीति 2024 का चुनाव नहीं जीता सकती। इस देश में सबसे बड़ा मसला है– भरपेट थाली और हर हाथ को काम। बहुसंख्यवाद, और कट्‌टर हिंदूत्व की धारा कुछ वक्त के लिए कुछ बहा सकती है लेकिन जमीन नहीं बदल सकती।

संघ अब सिर्फ मोदी और हिंदूत्व की धार को फीका बताकर पल्ला नहीं झाड सकता। उसे भी जमीनी मुद्दों पर आना होगा। राजनीतिक समझौते में फैलारे कर रही भाजपा की हालत उस भारी वजन की लकड़ी की तरह हो रही है जो अपने भार से ही डूबने लगती है। सत्ता आ रही है लेकिन संघ खो रहा है। यह देखकर संघ का वह सामान्य स्वयंसेवक ठगा सा महसूस कर रहा है जिसने निस्वार्थ भाव से खुद को खपाया है।

2024 के पहले

स्वदेशी जागरण मंच के उस वेबिनार को याद करने की जरूरत है। जहां संघ के नंबर दो के बड़े नेता दत्तात्रेय होसबोले ने देश में बढ़ती गरीबी, बेरोजगारी, असमानता पर चिंता जताई थी। उन्होंने खुल कर कहा था कि आज भी देश में 20 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। 23 करोड़ लोगों की रोज की आमदनी 375 रू. से कम है। चार करोड़ बेरोजगार हैं। 7.6 फीसदी बेरोजगारी की दर है। भारत दुनिया की छठे नंबर की अर्थव्यवस्था में शुमार है लेकिन इस देश में एक फीसदी लोगों के पास पूरे देश का 20 फीसदी पैसा है। 50 फीसदी के पास 13 फीसदी। गरीबी कम नहीं होना सरकार की अक्षमता है। शहर और गांव के बीच बहुत बड़ी खाई है। गांव खाली हो रहे हैं, शहर बदतर हो रहे हैं। अस्पताल, रोजगार, स्कूल नहीं होने से गांव से पलायन बढ़ रहा है। होसबोले के यह बोल किसी भी सरकार के लिए बहुत भारी हैं।

संघ का काम राष्ट्र, समाज, व्यक्ति निर्माण का बताया जाता है। वहीं संघ अब अपने सौ साल के सफर में नफरत फैलाने वाले संगठन के बतौर सबसे ज्यादा राहुल गांधी के निशाने पर है। इसे महज इत्तफाक नहीं कहा जा सकता कि संघ ने हाल ही में अपनी प्रतिनिधि सभा में नीचे तक के स्वयंसेवक को निर्देश दिया है- गांवों में जाना और लोगों के साथ सद्भावना और मोहब्बत का रिश्ता बनाना।

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