देश के 82 फीसदी पत्रकार सोचते हैं कि उनका मीडिया संस्थान भारतीय जनता को सपोर्ट करता है। 10 में 7 जर्नलिस्ट का मानना है कि जॉब का असर उनकी मानसिक सेहत पर पड़ा है। लोकनीति-CSDS ने एक सर्वे किया है, मीडिया इन इंडिया- ट्रेंड्स एंड पैटर्न। इस सर्वे में 206 पत्रकारों से सवाल किए गए। इसके जरिए यह जाना गया कि रोजमर्रा की जिंदगी में मीडिया की मौजूदगी और उसका यूजर और जर्नलिस्ट पर क्या असर पड़ रहा है।
कई राज्यों के टीवी, प्रिंट और डिजिटल पत्रकारों पर ये सर्वे किया गया। इनमें 75% पुरुष पत्रकार हैं। इनमें कई भाषाओं, उम्र, अनुभव और मीडिया एसोसिएशन के पत्रकार शामिल थे। 18 से 35 साल वाले 30%, 36 से 45 साल वाले 33% और 46 साल से ऊपर 37% पत्रकार सर्वे में शामिल किए गए। हिंदी के 41%, अंग्रेजी के 32% और अन्य भाषाओं के 27% पत्रकार थे। पत्रकारिता की शुरुआत कर रहे, जूनियर लेवल के पत्रकार, मिडल लेवल और सीनियर लेवल के पत्रकारों को शामिल किया गया।
सर्वे में शामिल पत्रकारों में से 85% महिलाओं ने कहा कि उनकी जॉब के चलते मानसिक स्वास्थ्य पर असर पड़ा है। 66% पुरुष पत्रकारों ने भी यही अनुभव साझा किया। इंग्लिश न्यूज ऑर्गनाइजेशन और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स में काम करने वाले मिडिल लेवल पत्रकारों ने कहा कि दूसरों के मुकाबले उनकी दिमागी सेहत पर जॉब का असर ज्यादा पड़ा है। 4 में से 3 पत्रकारों ने कहा कि उनकी जॉब के चलते फिजिकल हेल्थ प्रभावित हुई है। रिपोर्ट के मुताबिक, युवा और इंग्लिश मीडिया में काम करने वाले पत्रकारों में खराब सेहत के मामले ज्यादा सामने आ रहे हैं। काम के दबाव के चलते पत्रकारों के निजी रिश्तों पर भी असर पड़ रहा है।
कोविड और ग्लोबल इकोनॉमिक स्लोडाउन के बाद मीडिया इंडस्ट्री में छंटनी का माहौल रहा। 45% पत्रकारों ने बताया कि उनके संस्थानों में लोगों को नौकरी छोड़ने के लिए कहा गया ताकि खर्चे में कमी लाई जा सके। यही बात मिडिल एज वाले 69% और इंग्लिश मीडिया इंडस्ट्री में काम करने वाले 77% पत्रकारों ने भी कही। तीन चौथाई पत्रकारों का कहना है कि उन्हें अपनी जॉब जाने की चिंता सताती रहती है। यह फिक्र मिडिल एज जर्नलिस्ट को ज्यादा है।
मीडिया और राजनीति
तीन चौथाई पत्रकारों ने यह माना कि संस्थानों में किसी एक राजनीतिक पार्टी के लिए फेवरिज्म है यानी वो पक्ष ले रहे हैं। 82% स्वतंत्र पत्रकार यह मानते हैं कि मीडिया ऑर्गनाइजेशंस में किसी खास पार्टी का पक्ष लिया जाता है। 82% ने कहा कि उनके संस्थान में भाजपा को सपोर्ट किया जाता है। 89% स्वतंत्र पत्रकारों ने भी यही बात कही। इंग्लिश मीडिया में तीन चौथाई पत्रकारों ने कहा कि खबरिया संस्थानों में आमतौर पर भाजपा का फेवर किया जाता है।
16% पत्रकारों ने कहा कि उनके संस्थान में लोगों को राजनीतिक झुकाव के चलते नौकरी छोड़ने को कहा गया। सर्वे में शामिल आधे से ज्यादा पत्रकारों को ये लगता है कि उनके राजनीतिक झुकाव के चलते नौकरी जा सकती है।
80% ने कहा कि मोदी की कवरेज पर बहुत ज्यादा जोर दिया जाता है। 61% अपोजिशन पार्टियों के कवरेज में बहुत ज्यादा पक्षपात किया जाता है। 71% स्वतंत्र जर्नलिस्ट मानते हैं कि विपक्षी दलों के कवरेज में पक्षपात होता है।
रिपोर्ट के मुताबिक, स्वतंत्र जर्नलिस्ट यह मानते हैं कि मीडिया में मोदी सरकार की अच्छी तस्वीर दिखाई जाती है, वहीं अपोजिशन पार्टियों के साथ उल्टा होता है।
डििजटल मीडिया के 69% जर्नलिस्ट अपोजिशन पार्टियों के कवरेज को पक्षपातपूर्ण मानते हैं, प्रिंट में ऐसे पत्रकारों की संख्या 57% और टीवी में 42% है।
जब ये पूछा गया कि भारत में मीडिया मुस्लिम समुदाय को अन्यायपूर्ण तरीके से टारगेट किया जाता है तो 26% इससे सहमत थे और 26% पूरी तरह असहमत।
सोशल मीडिया, डिजिटल हैरेसमेंट
न्यूज लॉन्ड्री की रिपोर्ट के मुताबिक, आजकल मीडिया ऑर्गनाइजेशन में सोशल मीडिया को लेकर पॉलिसी बनाई जा रही हैं। इनमें इम्प्लॉई को यह बताया जाता है कि सोशल मीडिया पर पोस्ट करते वक्त किन बातों का ध्यान रखना है और क्या नहीं करना है। सर्वे में शामिल 59% पत्रकारों ने कहा कि यह सही कदम है। इनमें से 55% ने कहा कि उनके संस्थान मेंे भी सोशल मीडिया को लेकर पॉलिसी है और 10 में से 7 टीवी जर्नलिस्ट ने यही बात स्वीकार की। लेकिन 30% ने कहा कि वो सोशल मीडिया पर अपने विचार रखते वक्त हिचकते हैं। उधर हिंदी मीडिया के पत्रकार ऐसा करते वक्त ज्यादा भयभीत नहीं होते हैं।
ऑनलाइन फेक न्यूज के प्रचार-प्रसार पर चार में से 3 पत्रकारों ने कहा कि सोशल मीडिया पर गलत सूचान मिलना गंभीर चिंता का विषय है। दो-तिहाई पत्रकारों ने कहा कि हम सोशल मीडिया और इंटरनेट पर मिलने वाली गलत सूचनाओं से भ्रमित हो सकते हैं और यह मसला गंभीर है। दो-तिहाई जर्नलिस्ट मानते हैं कि न्यूज कंटेंट को सोशल मीडिया ट्रेंड काफी हद तक प्रभावित करते हैं। 10 में से 7 का मानना है कि यह चिंताजनक है।
सर्वे में पत्रकारों से पूछा गया कि जब उन्होंने ऑनलाइन पोस्ट की तो उन्हें कितनी बार ऑनलाइन ट्रोलिंग का शिकार होना पड़ा, कब उन्हें धमकाया गया, प्रताड़ित किया गया और अपशब्द कहे गए। 64% पत्रकार कम से कम एक बार तो ऐसी घटनाओं का शिकार हो चुके हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, डिजिटल जर्नलिस्ट सोशल मीडिया हैरेसमेंट का ज्यादा सामना करता है। 78% डिजिटल जर्नलिस्ट ने पिछले साल अपनी सोशल मीडिया पोस्ट के बाद प्रताड़ना झेली है। टीवी जर्नलिस्ट में ये आंकड़ा 55% का है और प्रिंट में 54%। सर्वे में शामिल आधे से ज्यादा महिलाओं ने कहा कि वे फेसबुक और ट्विटर पर अपनी प्राइवेसी को लेकर बहुत असुरक्षित महसूस करती हैं। उन्हें यह भी लगता है कि वॉट्सऐप यूज करते वक्त वे पुरुषों के मुकाबले ज्यादा असुरक्षित होती हैं।
प्रेस की आजादी
प्रेस की स्वतंत्रता पर 72% पत्रकारों का कहना है कि उनके न्यूज चैनल्स में अब अपना काम करने में ज्यादा स्वतंत्रता नहीं मिलती है। हिंदी मीडिया के मुकाबले इंग्लिश
मीडिया में काम करने वाला ऐसा ज्यादा महसूस करते हैं। 55% प्रिंट जर्नलिस्ट और 36% डिजिटल जर्नलिस्ट मानते हैं कि उन्हें सही तरह से अपना काम करने में उतनी
छूट नहीं मिलती, जितनी मिलनी चाहिए।
खास बात यह है कि 71% स्वतंत्र पत्रकारों का मानना है कि न्यूज पेपर्स में आजकल सही ढंग से पत्रकारिता करना थोड़ा मुश्किल हो गया है। 5 में से करीब 3 पत्रकार
कहते हैं कि रीजनल न्यूज मीिडया आज कल नेशनल मीडिया से बेहतर काम कर रहा है। एक तिहाई का कहना है कि वे काम के दौरान जेंडर से संबंधित भेदभाव झेलते
हैं, उनका मानना है कि महिलाओं को ज्यादा तरजीह दी जा रही है। 45% का कहना है कि राजनीतिक विचारधारा को लेकर उन्हें अपने साथियों से पक्षपात का सामना
करना पड़ा है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि पेशे के तौर पर पत्रकारिता को आजकल उतने सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता, जितना कि पहले देखा जाता था। 25% का कहना है कि वो
आजकल के पत्रकारिता के मानदंडों से कहीं ना कहीं संतुष्ट नहीं हैं। 13% पूरी तरह असंतुष्ट हैं। करीब-करीब सभी जर्नलिस्ट यह महसूस करते हैं कि आज कल न्यूज
चैनल्स और न्यूज पेपर्स में कवरेज का स्तर गिरता जा रहा है। दूसरी तरफ वेबसाइट पर इसका स्तर अच्छा हुआ है।
43% पत्रकारों में भविष्य में न्यूज चैनल्स की स्वतंत्रता को लेकर नकारात्मकता का भाव है। प्रिंट के लिए 22% और डिजिटल के लिए 16% पत्रकार ऐसा ही मानते हैं।
आधे से ज्यादा जर्नलिस्ट का कहना है कि वो अपना न्यूज मीडिया का जॉब पूरी तरह छोड़ना और दूसरा करियर चुनना चाहते हैं। काफी जर्नलिस्ट का कहना है कि
फाइनेंशियल मजबूरी की वजह से वो अभी अपना जॉब नहीं छोड़ पा रहे हैं। आधे से ज्यादा पत्रकारों का कहना है कि वो अपना जॉब इसलिए नहीं छोड़ पा रहे हैं, क्योंकि
फाइनेंशियल जिम्मेदारियां हैं, लोन हैं और आगे दूसरी जॉब भी नहीं है।
हालांकि इस मुद्दे पर हिंदी पत्रकारों के मुकाबले अंग्रेजी पत्रकारों का मत अलग है। ज्यादातर अंग्रेजी के पत्रकारों ने कहा कि पिछले 2 साल में उन्होंने जॉब छोड़ने के बारे में सोचा, लेकिन उन्हें इंडस्ट्री में अलग तरह का प्रेशर और चुनौतियां झेलनी पड़ सकती हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक, पत्रकारिता के पेशे में अब असंतोष का भाव गहरी जड़ें जमा चुका है। मीडिया ऑर्गनाइजेशंस को अपने इम्प्लॉई की बेहतरी और भलाई को प्राथमिकता देनी चाहिए। मेंटल हेल्थ रिसोर्स, प्रोफेनल डेवलपमेंट, इम्प्लॉई असिस्टेंस प्रोग्राम जैसा सिस्टम डेवलप करना चाहिए। साथ ही काम और निजी जिंदगी के बैलेंस को भी बढ़ावा
