”राजनीतिक पार्टी का अनुशासन इस संविधान सभा को एक हां में हां मिलाने वाली सभा में बदल सकता था। अगर सदस्य, पार्टियों के नियम-कायदों और अनुशासन से आगे बढ़कर चर्चा नहीं करते तो संविधान सभा की कार्यवाही बेकार हो जाती।” संविधान निर्माताओं में से एक डॉ. बीआर आम्बेडकर ने 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा के अपने आखिरी भाषण में ये बात कही थी। आम्बेडकर की 132वीं जयंती के मौके पर 74 साल पहले दिया उनका ये भाषण आज भी सुनने-पढ़ने लायक है। आम्बेडकर इसमें देश के निर्माण के लिए संविधान बनने और उसका पालन करने के सबसे बेहतर तरीकों को समझाते हैं। साथ ही वे किसी राजनीतिक पर्सनैलिटी को ‘कल्ट फिगर’ बनाने को लेकर चेतावनी देते हुए कहते हैं, ”धर्म में भक्ति आत्मा के उद्धार का मार्ग हो सकता है, लेकिन राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा पतन और आखिर में तानाशाही की तरफ ले जाती है।”
संविधान का मसौदा तैयार करने की चर्चा के दौरान आम्बेडकर लोकतंत्र और संसदीय व्यवस्था की खासियत के बारे में कहते हैं, ‘अगर संविधान सभा के लोग सिर्फ खुद के लिए कानून बनाने के लिए सोचते तो ड्राफ्टिंग कमेटी का काम बहुत मुश्किल होता। यह संविधान सभा एक भीड़ साबित होती, जैसे सीमेंट के बिना एक फुटपाथ। जहां एक काला और एक सफेद पत्थर होता है। हर समूह खुद के लिए कानून बनाता तो संविधान सभा में अराजकता के सिवा कुछ नहीं होता।”
‘राजनीति में नायक-पूजा या भक्ति तानाशाही की तरफ ले जाती है’
आम्बेडकर राजनीति में लीडर्स को हीरो बना लेने या उनकी पूजा-भक्ति करने को सरासर गलत मानते थे। वे अपने इस भाषण में कहते हैं, ”जिन महापुरुषों ने जीवन भर देश की सेवा की है, उनके प्रति कृतज्ञ होने में कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन कृतज्ञता की सीमा होती है। जैसा कि आयरिश देशभक्त डैनियल ओ’कोनेल ने कहा है, ‘कोई भी पुरुष अपने सम्मान की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता, कोई महिला अपनी पवित्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकती और कोई भी राष्ट्र कृतज्ञ नहीं हो सकता स्वतंत्रता की कीमत पर।’ यह सावधानी किसी भी अन्य देश की तुलना में भारत के मामले में कहीं अधिक जरूरी है। क्योंकि भारत में भक्ति या नायक-पूजा राजनीति में एक भूमिका निभाती है जो दुनिया के किसी भी अन्य देश की राजनीति में भी है। धर्म में भक्ति आत्मा के उद्धार का मार्ग हो सकता है, लेकिन राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा पतन और आखिर में तानाशाही की तरफ ले जाती है।”
‘हजारों जातियों में बंटे हुए लोग एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं?’
आम्बेडकर इस भाषण में चेतावनी देते हैं कि भारत जैसा विविधतापूर्ण देश अपने आप एक राष्ट्र बन जाएगा, इस प्रक्रिया को हल्के में न लें। संयुक्त राष्ट्र के बजाय अपने देश को संयुक्त राज्य अमेरिका कहने के लिए अमेरिकी नागरिकों के फैसले का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं, ”जब संयुक्त राज्य के लोग यह महसूस नहीं कर सकते कि वे एक राष्ट्र हैं तो भारतीयों के लिए यह सोचना कितना कठिन है कि वे एक राष्ट्र हैं। मुझे वे दिन याद हैं जब राजनीतिक सोच रखने वाली भारतीय अभिव्यक्ति ने ‘भारत के लोगों’ का विरोध किया। उन्होंने ‘भारतीय राष्ट्र’ की अभिव्यक्ति को प्राथमिकता दी। मेरा मत है कि यह विश्वास करके कि हम एक राष्ट्र हैं, हम एक बड़ा भ्रम पाल रहे हैं। हजारों जातियों में बंटे हुए लोग एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं? जितनी जल्दी हमें यह एहसास हो जाए कि दुनिया के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अर्थों में हम अभी तक एक राष्ट्र नहीं हैं, हमारे लिए उतना ही अच्छा है। तभी हम एक राष्ट्र बनने की आवश्यकता को महसूस करेंगे और लक्ष्य को प्राप्त करने के तरीकों और साधनों के बारे में गंभीरता से सोचेंगे।”
आम्बेडकर आगे कहते हैं, ”इस लक्ष्य की प्राप्ति बहुत कठिन है, संयुक्त राज्य अमेरिका की तुलना में कहीं अधिक कठिन। संयुक्त राज्य अमेरिका में कोई जाति समस्या नहीं है। भारत में जातियां हैं। लेकिन, अगर हम वास्तव में एक राष्ट्र बनना चाहते हैं तो हमें इन सभी कठिनाइयों को दूर करना होगा। अगर चीजें गलत होती हैं तो हमारे अलावा कोई और जिम्मेदार नहीं होगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस आजादी ने हम पर बड़ी जिम्मेदारियां डाली हैं। आजादी से हमने कुछ भी गलत होने के लिए अंग्रेजों को दोष देने का बहाना खो दिया है। अगर इसके बाद चीजें गलत होती हैं, तो हमें दोष देने वाला कोई नहीं होगा। खुद को छोड़कर यदि हम उस संविधान को संरक्षित करना चाहते हैं जिसमें हमने लोगों की सरकार, लोगों के लिए और लोगों द्वारा के सिद्धांत को स्थापित करने की मांग की है, तो आइए हम संकल्प लें कि हम अपने रास्ते में आने वाली बुराइयों को पहचानने में देर नहीं करेंगे। और जो लोगों को लोगों द्वारा सरकार के लिए लोगों के लिए सरकार को तरजीह देने के लिए प्रेरित करते हैं न ही उन्हें हटाने की हमारी पहल में कमजोर होने के लिए। देश की सेवा करने का यही एक तरीका है, मैं इससे बेहतर नहीं जानता।”
अगर लोग बुरे हुए तो संविधान भी बुरा साबित होगा: आम्बेडकर
संविधान सभा के अपने अंतिम भाषण में आम्बेडकर चेतावनी देते हैं, ‘संविधान एक दस्तावेज पर निर्भर नहीं करता है। इसका लागू होना उन लोगों पर निर्भर करता है जिन्हें इसे लागू करने का काम सौंपा गया है। संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, उसका बुरा होना निश्चित है क्योंकि जिन लोगों को इसे लागू करने के लिए बुलाया जाता है, अगर वे बहुत बुरे होते हैं। कोई संविधान कितना ही बुरा क्यों न हो, यदि उसे चलाने वाले बहुत अच्छे हो तो वह अच्छा हो सकता है। संविधान केवल राज्य के अंगों जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका प्रदान कर सकता है। जिन कारकों पर राज्य के उन अंगों का काम निर्भर करता है, वे राजनीतिक दल जो उनकी इच्छाओं और उनकी राजनीति को पूरा करने के लिए उनके उपकरण के रूप में स्थापित होंगे।’

धर्म को देश से ऊपर रखने को लेकर भी आम्बेडकर ने दी थी चेतावनी
मोहम्मद-बिन-कासिम का सिंध पर आक्रमण, पृथ्वीराज चौहान के खिलाफ लड़ने के लिए मोहम्मद गोरी का आक्रमण, साथ ही 1857 में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लड़ाई में भारतीयों के बीच फूट जैसी ऐतिहासिक घटनाओं का उदाहरण देते हुए अम्बेडकर कहते हैं, ”न केवल भारत ने अपनी स्वतंत्रता को एक बार खोया है, बल्कि उसने इसे अपने ही कुछ लोगों की बेवफाई और विश्वासघात से खो दिया है। क्या इतिहास अपने आप को दोहराएगा? यही सोच मुझे चिंता से भर देती है। यह चिंता इस तथ्य की अनुभूति से और भी गहरी हो जाती है कि जातियों और पंथों के रूप में हमारे पुराने शत्रुओं के अलावा हमारे पास विविध और विरोधी राजनीतिक पंथों वाले कई राजनीतिक दल होने जा रहे हैं।”
आम्बेडकर आगे सवाल करते हैं, ”क्या भारतीय देश को अपने पंथ से ऊपर रखेंगे या वे पंथ को देश से ऊपर रखेंगे? मुझे नहीं पता। लेकिन इतना तय है कि अगर पार्टियां देश के ऊपर पंथ को रखेंगी तो हमारी आजादी दूसरी बार खतरे में पड़ जाएगी और शायद हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी। इस घटना से हम सभी को सख्ती से बचना चाहिए। हमें अपने खून की आखिरी बूंद से अपनी आजादी की रक्षा करने के लिए दृढ़ संकल्प होना चाहिए।”
विकास चाहिए तो संविधान का मजबूती से पालन करना होगा: आम्बेडकर
आम्बेडकर इस संबोधन में कहते हैं, यदि हम लोकतंत्र को वास्तव में भी बनाए रखना चाहते हैं तो हमें क्या करना चाहिए? मेरे विचार से हमें सबसे पहले यह करना चाहिए कि हम अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीकों का दृढ़ता से पालन करें। इसका मतलब है कि हमें क्रांति के खूनी (हिंसक) तरीकों को छोड़ देना चाहिए। इसका अर्थ है कि हमें सविनय अवज्ञा,असहयोग और सत्याग्रह के तरीकों को छोड़ देना चाहिए। जब आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीकों से रास्ता नहीं बचता तो इन असंवैधानिक तरीकों को चुनना ठीक था। लेकिन, जहां संवैधानिक तरीके हों, वहां इन असंवैधानिक तरीकों को इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। ये तरीके अराजकता फैलाने के अलावा और कुछ नहीं हैं। इन्हें जितनी जल्दी इन्हें छोड़ दिया जाए हमारे लिए उतना ही अच्छा है।”
आम्बेडकर ने संविधान सभा के सदस्यों को कहा था- ‘विद्रोही’
इस भाषण में आम्बेडकर आगे कहते हैं, ‘सौभाग्य से, वहां (संविधान सभा) विद्रोही थे। वे श्री कामथ, डॉ. पीएस , श्री देशमुख, श्री सिधवा, प्रोफेसर सक्सेना और पंडित ठाकुर दास भार्गव के साथ-साथ मुझे प्रोफेसर केटी शाह और पंडित हृदय नाथ कुंजरू का उल्लेख करना चाहिए। उन्होंने जो मुद्दे उठाए वे ज्यादातर वैचारिक थे।”

एक ऐसे युग में जहां विपक्ष की भूमिका को अक्सर अंध-विरोध में नाटक करने या शोर बताकर खारिज कर दिया जाता आम्बेडकर जो उदाहरण पेश करते हैं वो गौर करने लायक है। आम्बेडकर कहते हैं, ‘मैं उनके (अन्य सदस्य) के सुझावों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। लेकिन, ये उनके सुझावों के मूल्य को कम नहीं करता है और न ही सदन की कार्यवाही को जीवंत बनाने में उनके योगदान को कम करता है। मैं उनका कृतज्ञ हूं। लेकिन, इसके बिना मुझे संविधान के सिद्धांतों की व्याख्या करने का अवसर नहीं मिला होता, जो कि संविधान को पारित करने के कार्य से ज्यादा जरूरी था। संविधान उन लोगों पर निर्भर करता है जिन्हें इसे लागू करने के लिए बुलाया गया है।’
लोकतंत्र को सिर्फ राजनीतिक नहीं बल्कि सामाजिक होना चाहिए: आम्बेडकर
आम्बेडकर अपने भाषण में इस बात पर जोर देते हैं कि लोगों को केवल एक राजनीतिक लोकतंत्र से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। उन्हें समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के सिद्धांतों के साथ एक सामाजिक लोकतंत्र के लिए प्रयास करना चाहिए। वे कहते हैं, ”राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं टिक नहीं सकता जब तक कि उसका आधार सामाजिक लोकतंत्र न हो। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? इसका अर्थ जीवन का एक तरीका है जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में पहचानता है। ये इस अर्थ में त्रिमूर्ति का एक संघ बनाते हैं। इन्हें एक-दूसरे से अलग करना लोकतंत्र के मूल उद्देश्य को पराजित करना है। समानता के बिना स्वतंत्रता कुछ लोगों की सर्वोच्चता उत्पन्न करेगी। बंधुत्व के बिना स्वतंत्रता बहुत से लोगों पर कुछ लोगों की सर्वोच्चता उत्पन्न करेगी। बंधुत्व के बिना स्वतंत्रता और समानता का एक स्वाभाविक क्रम नहीं बन सकता। उन्हें लागू करने के लिए एक कॉन्स्टेबल की आवश्यकता होगी।”
