जुलाई-23 के दूसरे सप्ताह में कट्टरपंथी इस्लामिक दंगो की आग में झुलस रहे
फ़्रांस की जमीन पर लैंड करते ही प्रधानमंत्री ने बिलकुल ही नये अंदाज में नये
कूटनीतिक स्वर में जो संदेश दिया उसकी आवश्यकता काफ़ी लंबे अरसे से महसूस
की जा रही थी। फ़्रांस में प्रधानमंत्री ने एक इंडोलॉजिस्ट की भाषा में बोलते हुये,
भविष्य के भारत का आगाज करने वाला भाषण दिया। उनका यह अकेला भाषण
समकालीन अंतर्राष्ट्रीय राजनाति के तीन बिंदुओ पर भारतीय हितो की व्यूह रचना
के साथ वैश्विक शांति के आधार को सामने रखता है जो कि इस प्रकार हैं – क)
उपनिवेशवादी यूरोप की अधिनायकवादी मनोवृत्ति ख) हिंदूफ़ोबिया द्वारा सनातन
की उत्कृष्टता को नकारात्मक बनाने की कोशिश ग) कट्टरपंथी (रेडिकल) इस्लाम
की चुनौती । प्रधानमंत्री ने इन तीनों बिदुओ को स्पर्ष करते हुये ऐसा मजबूत
आधार बनाने की कोशिश की है जिसके पीछे ऐतिहासिक सत्य की शक्ति है एवं
जिसमें व्यावहारिकता की कसौटी पर सफ़ल होने का माद्दा है।
प्रधानमंत्री के चार मंत्र
प्रधानमंत्री ने संस्कृत के ग्रथों में संग्रहीत चार मंत्र फ़्रांस से दिये, प्रथम मंत्र,
ऋग्वेद से लिया गया ऋषि दीर्घतमस औचथ्य का है “एकं सद विप्राः बहुधा वदंति”
जो कि एक ही ईश्वर को अलग अलग लोगों द्वारा अलग अलग तरीके से देखने
या समझने का संदेश देता है। दीर्घतमस औचथ्य का मंत्र बहुलतावाद का आधार है
।
दूसरा मंत्र उन्होने हितोपदेश से लिया “आत्मवत सर्वभूतेषु” जिसका अर्थ है अपने
पन का विस्तार सबमें करो। नये वर्ल्ड आर्डर अर्थात उभरती हुई नई वैश्विक
संरचना के संदर्भ में प्रधानमंत्री ने तीसरा मंत्र पुनः ऋग्वेद से लिया, जिसे ऋषि
संवनन दिया था – “संगच्छध्वम् संवद्ध्वम सं वो॒ मनां॑सि जानताम्” अर्थात भविष्य
का संगठन ऐसा हो जो सबको साथ लेकर चले, जिसमें सब मिलकर एक संकल्प
लें, सबके मन समान हों ।
उन्होने महानारायण उपनिषद से चौथा मंत्र “वसुधैव कुटुंबकम” लिया जिसमें संदेश
दिया गया है कि “यह मेरा है, यह तेरा है”, की सोच संकुचित सोच है, इसके
विपरीत उदारचरित के लोगों के लिए सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है ।
असली हिंदुत्व
इन्ही चार संदेशो सहित दर्जनों अन्य संदेशो से मिलकर सनातन हिंदू धर्म बनता
है, यही असली हिंदुत्व है। आम भारतीय के चरित्र की बुनाई इन्ही सांस्कृतिक सूत्रो
द्वारा हुई है किंतु भारत का पत्रकारिता जगत इनकी प्रासंगिकता एवं महत्व से
अपरिचित रह गया है। वास्तव में हिंदुत्व की अवधारणा के प्रथम प्रवर्तक सावरकर
नही हैं, सावरकर से बहुत पहले सन् 1894 में बंगाल के चिंतक बाबू चंद्रनाथ बासु
ने इन्ही सूत्रों एवं सिद्धांतो के आधार पर हिंदुत्व की अवधारणा का प्रवर्तन किया
था । इस तथ्य की उपेक्षा इसलिये की जाती है ताकि सनातन हिंदू संस्कृति को
भी रेडिकल साबित किया जा सके।
मक्का चार्टर: अरब से आई शांति की उम्मीद
फ़्रांस के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने यूएई (संयुक्त अरब अमीरात )की यात्रा भी की,
प्रधानमंत्री की पहल से एक दूरगामी सुखद परिणाम सामने आया किंतु इस
परिणाम को वैसी सुर्खियां हाशिल नही हुईं जैसी होनी चाहिये थीं।
इसी दौरान वर्ल्ड मुस्लिम लीग के प्रमुख शेख डॉ मोहम्मद बिन अब्दुलकरीम अल-
इस्सा भारत आकर विश्व-शाति की हेतु आशा की किरण जगा गये, उन्होने
इस्लाम के रसूल ह्जरत पैगंबर मोहम्मद ने जीवन के अंतिम हिस्से में जिस
मक्का चार्टर को तैयार किया था, उस चार्टर पर जोर देकर शांति के इस
ऐतिहासिक दस्तावेज को एक गाइड बुक की तरह सामने रखा जिस पर भारत में
कोई विमर्श अब तक नहीं खडा हो सका। भारत में अभी भी असादुद्दीन ओवेसी
जैसे अलगाव वादी नेता ही टीवी चैनल्स के पोस्टर ब्वाय बने हुये हैं ।
यहां यह स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है कि सउदी अरब की सरकार ने भी सन्
2019 में मक्का चार्टर को अपनी विदेश नीति निर्धारण हेतु रिफ़रेंस दस्तावेज के
रूप में मान्य किया है।
वोल्टेयर की कहानी: भारतीय चिंतन की यूरोप विजय
अधिकांश विद्यार्थी नहीं जानते, पत्रकार एवं संपादक भी कम ही जानते हैं कि
जिस वक्त भारत में अंग्रेज प्लासी एवं बक्सर के युद्धो द्वारा धोखे से हमारी
जमीन हथिया रहे थे, उसी समय जेसुइट मिशनरियो द्वारा भारत से ले जाये गये
विचार युरोप के दिल-दिमाग में अपना घर बना रहे थे। वास्तव में ये विचार
ऋषियों के संदेश थे जिनसे यूरोपीय स्कालर्स की सोच का आयाम खुल रहा था, वे
उस आकाश में गोते लगा रहे थे जो उन्हे पश्चिम में पहले उन्हे कभी नसीब नहीं
हुआ था ।
पहली पीढ़ी के जिस यूरोपीय स्कालर को भारत की ऊंचाई का आभास हुआ वे थे
फ़्रांस के वोल्टेयर। वोल्टेयर (1696-1778) ने रूसो (1712-1778) के साथ
मिलकर, फ़्रांस में मनुष्य की स्वतंत्रता (लिबर्टी) एवं समानता (इक्वेलिटी) की
ज्योति जलाई । वोल्टेयर ने भारत से बहुत कुछ सीखा, समझा तथा लिया।
भारत के पूर्वाग्रह मुक्त दर्शन (बायस फ़्री फ़िलासफ़ी) जिसके द्वारा
भारत में सत्य की खोज हुई, उससे वोल्टेयर बहुत प्रभावित हुये
क्योंकि तत्कालीन यूरोप में ऐसा सोचना लगभग असंभव था। कृतज्ञ
वोल्टेयर ने पूर्वाग्रह मुक्त भारतीय दर्शन का महत्व रेखांकित करने के
लिये सन् 1769 में एक निबंध लिखा जिसका शीर्षक रखा “द गुड
ब्राहमन”।
शीर्षक पर आज शायद आपत्तियां की जायें किंतु वोल्टेयर का चुना हुआ शीर्षक
है। घटा हुआ इतिहास है।
उपनिवेशवादी सोच की गिरफ़्त में “इंडिया–आईएनडीआईए”
इस वक्त विपक्ष ने जिस “आईएनडीआईए” का निर्माण किया है, उसकी राजनीति
में भारत की बहुचर्चित साफ़्ट पावर का निर्माण करने वाले दो प्रमुख तत्वों – भारत
का सांस्कृतिक वैभव और मानवता की सेवा में भारत का योगदान, का
प्रतिनिधित्व करने वाला कोई भी नेता नहीं है। विपक्ष का “आईएनडीआईए” पिछली
सदी के उपनिवेशवादी साये में बनाई भारत को नकार देने वाली पिछली राजनीति
से आजाद नही हो पाया है।
“आईएनडीआईए” का “इंडिया” पाकिस्तान की श्रेणी का भारत
“आईएनडीआईए” का “इंडिया” पाकिस्तान की श्रेणी का भारत है।
इसका नामकरण करने वाले, विदेशों में सक्रिय कांग्रेस नेता
राहुल गांधी का पिछले एक दशक में भारत की सांस्कृतिक
समृद्धता, साहित्यिक उत्कृष्टता एवं वैचारिक श्रेष्ठता पर, न
कोई ट्वीट सामने आया है और न ही कोई भाषण या लेख जो
कि चिंताजनक है क्योंकि भारत की महानता से अपिरिचित नेता
अंतराष्ट्रीय कूटनीति में कमजोर कडी साबित होते हैं जिसका
उदाहरण हम साठ के दशक में देख चुके हैं और तब से आज
तक भोग रहे हैं।
साठ के दशक में क्या हुआ, उसका एक सारगर्भित संक्षिप्त अवलोकन करना जरूरी
है।
शीत-युद्ध के दौरान बनाया गया हीन-भावना का नरेटिव
साठ के दशक में दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में कोठारी आयोग (सन्
1964) का गठन हुआ । अतंराष्ट्रीय कूटनीति में यह दौर विश्व की दो
महाशक्तियों के बीच शीत-युद्ध का दौर था। समाजवादी एवं उपनिवेशवादी दोनों
शक्तियां अपने-अपने हित साधने में व्यस्त थीं। उन्ही दिनों कोठारी आयोग, भारत
की पहली शिक्षा नीति बनाने के लिये, गठित किया गया किंतु रूष की शीतयुगीन
राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के दबाव में आकर, कोठारी आयोग ने शिक्षा नीति का
लक्ष्य भारत को समाजवादी बनाना तय कर दिया । उन्ही दिनों अनेक माध्यमों से
आ रहे समाजवादी पैसे के बल पर भारत भर में ऐसे ऐसे लेखक, कवि,
साहित्यकार पैदा किये गये जिन्होने हर मंच से भारत को एवं नकारने, माखौल
बनाने का काम मिशन मोड में किया।
लेफ़्ट लिबरल ने शुरू की इतिहास मिटाने की राजनीति
अगले एक दशक में समाजवाद की खाद नासूर बन गयी । समाजवाद की खाद से
वैचारिक खेमेबाजी शुरू की गयी तथा समाजवादी-लेफ़्ट-लिबरल इतिहासकारों एवं
संपादको के मध्य एक गठजोड़ बनाया गया। लेफ़्ट इतिहासकारों द्वारा प्राचीन
भारतीय इतिहास के साथ जो अपराध किये गये, उन्हे खेमेबाज संपादको ने सीमा
से परे जाकर रक्षा कवच प्रदान किया।
इस खेमेबाजी का ज्वलंत उदाहरण है, NCERT द्वारा सन् 2007 में वैदिक
इतिहास के सभी चैप्टर्स को लेफ़्ट-लिबरल इतिहासकारो द्वारा एक कमिटी में
शामिल होकर, आधिपत्य जमाकर, षडयंत्रपूर्वक हटा दिया जाना। हटाने वाले
इतिहासकार लेफ़्ट-लिबरल खेमे के वे इतिहासकार थे जिनमें शामिल थे – रामचंद्र
गुहा, सुमित सरकार, नीलाद्रि भट्टाचार्य, जया मेनन, कुमकुम सेन, पार्थो दत्ता जो
अपने कंधों मे इतिहास को ‘यथावत’ एवं ‘बिना छेड-छाड किये’ अर्थात समेकित
रखने का झंडा उठाये घूमते थे ।
शायद संसार में ऐसा कभी नही हुआ होगा कि इतिहास की किताबों से एक पूरे
युग का इतिहास मिटा दिया जाये तथा उसकी खबर अंग्रेजी के किसी बडे
न्य़ूजपेपर में न छापी जाये लेकिन भारत में ऐसा हुआ । लेखक ने इंडियन
एक्सप्रेस एवं कई अन्य अंग्रेजी न्य़ूजपेपर्स के पत्रकारो से लंबे समय तक आग्रह
किया, किंतु उन्होने अनेक कारण बताकर खबर बताकर छापने से मना कर दिया।
एक प्रकार से अघोषित सेंसरशिप लगाई गई, इन घटनाओ से पता चलता है कि
समाजवाद या लेफ़्ट-लिबरल खेमे के नेता संपादक एवं पत्रकार आपस में फ़ासिस्म
की मानसिकता रखते हैं ।
संविधान एवं न्यायपालिका को साधने के प्रयास
कोठारी आयोग के अनुमोदन से जिस निकृष्ट प्रतिगामी शिक्षा सामग्री का निर्माण
किया गया, जो पौध तैयार की गयी उसका परिणिति ठीक बारह साल बाद 42वें
संविधान संशोधन के रूप में सन् 1976 में हुई, जब 42 वें संशोधन द्वारा
समाजवाद को संविधान की प्रस्तावना में दर्ज करना पड़ा। जबकि भारत के किसी
कोने से समाजवाद को संविधान में जोड़ने की न मांग उठी थी, न आंदोलन हुआ
था, न विमर्श हुआ था और न ही किसी प्रकार का जनमत संग्रह। मजबूरी जो भी
रही हो, जवाहर लाल नेहरू एवं इंदिरा गांधी की सरकारों मे शीतयुगीन समाजवाद
को प्राथमिकताओं के स्तर पर दृष्यमान बनाये रखना पड़ा।
अंबेडकर ने खारिज किया
अंबेडकर ने समाजवाद को संविधान की प्रस्तावना में शामिल करने
के प्रश्न को खारिज कर दिया था, कडी आपत्ति करते हुये उन्होने
कहा कि “सबसे पहले, संविधान कोई ऐसा तंत्र नहीं है जिसके
द्वारा विशेष सदस्यों या विशेष दलों को शासकीय कार्यालय में
स्थापित किया जाता है”। अंबेडकर पिछले दरवाजे से समाजवाद
को शासन व्यवस्था में थोपने के विरुद्ध थे।
सिलसिला लंबा है, आज की स्थिति अधिक भयावह है। इंडियन एक्सप्रेस जैसे
न्यूजपेपर में कमुनिष्ट (सीपीआई) नेता डी राजा एवं प्रकाश कारत स्तम्भ लेखक
हैं, क्यों हैं, इंडियन एक्सप्रेस से कोई स्पष्टीकरण कभी नहीं आया । राजधानी
दिल्ली में डी राजा अक्सर दिल्ली के न्यायाधीशों के अहातों में देखे जाते हैं।
प्रकाश करात की पत्नी बृंदा करात भी कई ऐसे समारोहों में शिरकत करती हुई
देखी गई हैं। उनकी पिटीशन को कितने ही बार प्राथमिकता दी गई है। इन सब
क्रिया-कलापों से आपस में एक आपसी समझ एवं सहमति होने का संदेश छन कर
निकल ही जाता है।
जैसे ही दीवाली आती है, पूरे साल भर मूक रहने वाले न्यायधीशगण पटाखों से
होने वाले प्रदूषण पर अति सक्रिय हो जाते हैं। विज्ञान को कोई मौका ही नही
दिया जाता कि विज्ञान समाधान निकालने का प्रयास करे, कानून के डंडे से केवल
दीवाली पर प्रदूषण रोकने का विलक्षण प्रयास भारत के न्यायधीश करते देखे जाते
हैं।
विज्ञान एवं तकनीक के विद्यार्थियों ने गंगा नहीं सूखने दी
आगे चलकर जब विदेशी समाजवाद ने थियेटर तथा फ़िल्म निर्माण को अपने
कब्जे में ले लिया । अशोभनीयता अश्लीलता एवं दरिद्रता देखते-पढते-सुनते हुये
तीन दशक गुजर गये। किंतु गंगा अभी सूखी नहीं थी । आर्थिक उदारीकरण शुरु
होते ही विज्ञान एवं तकनीक के विद्यार्थियों ने भारतीय मेधा को विश्व के शिखर
पर बिठा दिया। उद्दोगपतियों की नयी जमात ने भले ही जेआरडी टाटा या
घनश्यामदास बिरला की तरह सीधे समाज के उत्थान में निवेश न किया हो किंतु
उन्होने समृद्धिशालिता के स्वप्न को बहुत करीब ला कर खडा कर दिया। हमारा
युवा विश्व की शीर्ष बहुराष्ट्रीय कंपनियो मे जाकर उनका सीईओ बनने लगा,
समाजवादी-लेफ़्ट-लिबरल स्वयं को किसी स्तर तक उठा न सके ।
व्हाट्सप्प यूनिवर्सिटी का तंज फ्रस्टेशन निकालने का जरिया
सोशल मीडिया की शक्ति से, फ़ेसबुक, ह्वाट्सअप, विकीपीडिया, अकेडमिया,
जेस्टोर एवं ट्विटर के आ जाने से समाजवादी-लेफ़्ट-लिबरल खेमे की दशकों की
मेहनत असफ़ल हो गई। उन्होने भारत में जिस निकृष्ट शिक्षा सामग्री का निर्माण
किया, उसे युवको ने नकार दिया। अब शिक्षा-संस्थानो की शिक्षा-सामग्री केवल
डिग्री लेने के लिये प्रयुक्त की जा रही है। अपने को समर्थ बनाने के लिये युवक
सोशल-मीडिया का प्रयोग कर रहे हैं जिसकी कटु आलोचना समाजवादी-लेफ़्ट-
लिबरल खेमा करता रहता है, किंतु गंगा बहती जा रही है ।
ललित मिश्र
