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दशमत और राजनीति का सच

सीधी के जिस एक साल पुराने  वीडियो के कारण प्रदेश की राजनीति उफान पर है, उसका कारण डेढ़ करोड़ आदिवासियों का वोट बैंक है. जो प्रदेश की 80 सीटों पर हार- जीत तय करता है.  देश की 14 फीसद से ज्यादा आदिवासी आबादी मध्यप्रदेश में है. आदिवासी वोट की क्या ताकत है- इसका नजारा 2003 का चुनाव है. जब दिग्विजयसिंह ने सुबह 9 बजे ही  अलीराजपुर का रूझान देख कर अपनी हार स्वीकर कर ली थी. दिग्विजयसिंह समझ गए थे,  आदिवासी सीट अलीराजपुर में अगर कांग्रेस हारती हुई दिख रही है तो प्रदेश में हारना तय है.

2018 का चुनाव हारने वाली भाजपा आदिवासी सीटों के कारण ही  झटका खा गई.

2003 के पहले तक भील, गौंड, कोल, कुर्कु, सेहरिया, बैगा कांग्रेस का मजबूत वोट बैंक था. जिसे पिछले 20 सालो में भाजपा अपने पाले में कर लिया था. सीधी की यह घटना इसीलिए मुसीबत का कारण बन गई है. क्योंकि  2023 के चुनाव में कांग्रेस का सारा ध्यान इस वोट बैंक पर है. कर्नाटक चुनाव में आदिवासी, पिछडे, दलित और मुसलमानों ने कांग्रेस को सत्ता में बैठाया है.  एंटी इनकमबेंसी में जूझ रही शिवराज सरकार को आदिवासी वोट साधना बड़ी चुनौती है. उसे खतरा सिर्फ कांग्रेस से ही नहीं  जयस और गौंडवाना गणतंत्र पार्टी से भी खड़ा हो गया है . जो आदिवासियों पर हो रहे अत्याचार के मामले में  मैदान में आ गए हैं.

डेमेज कंट्रोल राजनीति में शिवराजसिंह चौहान का कोई सानी नहीं है. पिछले चुनाव में मंदसौर में पुलिस फायरिंग में किसानों की मौत के बाद  किसान राजनीति में उबाल आ गया था.   शांति बहाल करने के लिए शिवराज ही अनशन पर बैठ गए. तब भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय ने कहा था– किसान उस पानी को पानी चाहते हैं, जिसमे शिवराज पैर धोते हैं. दरअसल विजयवर्गीय यह बताने की कोशिश कर रहे थे कि किस तरह मंदसौर में गुस्साएं किसानों को मुख्यमंत्री के सत्याग्रह ने पिघला दिया है.

इसी तरह पेटलावद की दर्दनाक घटना है. जहां भाजपा नेता के अवैध डिटोनेटर, जिलेटिन गोडाउन में हुए ब्लास्ट से 60 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई. सरकार के खिलाफ नाराज़ी उफन पड़ी, बावूजद इसके शिवराज वहां गली- गली घूमकर लोगों के गुस्से- नाराजी झेलकर मामले को ठंडा करते रहे.

सीधी के वीडियो कांड में भी यहीं हुआ है. दशमत आदिवासी कौल है. जिनकी आबादी सीधी, सिंगरोली, अनूपपूर, सतना की सीटों पर 12लाख के करीब है. जिन्हें साधने के लिए शिवराज पूरी ताकत से लग गए हैं. राजनीति चुनावी पोस्टर का खेल है. दशमत कांग्रेस का पोस्टर बॉय बन जाए, इसके पहले शिवराज ने दो नए पोस्टर जारी कर दिए. उसे घर बुलाकर उसके पैर धोए उसे सर  माथे लगाया इसके बाद विधायक केदारनाथ शुक्ला के शोहदे प्रवेश शुक्ला को जेल भिजवाकर उसके  घर बुलड़ोजर चलवा दिया.

सबसे चौंकाने वाला मामला यह है कि इस पूरी घटना ने साबित किया है कि मध्यप्रदेश में शिवराज ही सरकार है और शिवराज ही संगठन है.  कार्यकर्ताओं के बड़े बड़े प्रशिक्षण वर्ग चलाने वाली भाजपा एक शोहदे पर काबू नहीं पा सकी.  प्रवेश शर्मा विधायक के नाम पर रंगदारी जमाता रहा. शराब से ज्यादा सत्ता के नशे में धूत चलता रहा. जिस ‌विधायक के दम पर वह दम भरता रहा उसी केदारनाथ शर्मा ने उसे अपना प्रतिनिधि मानने से इंकार कर दिया.

सीधी के लोग अब बता रहे हैं कि रंगदारी करना, कब्जे करना, बंदूक दिखाकर गोली मारने की धमकी देना यह प्रवेश शर्मा की पहचान है. पत्रकारों और नाटक के कलाकारों को थाने में बंदवाकर उनके कपड़े उतरवाकर फोटो वायरल करने में भी शर्मा का हाथ रहा है. व्यवस्था सत्ता के करीबी इन दबंगों के आगे कैसे झुककर चल रही है, इसका नजारा तब देखने को मिला जब रासुका लगने के बाद भी शर्मा सीना चौड़ा कर थाने में पहुंचा. और पुलिस उसको दबोचने की बजाय उसका अवभगत करते दिखी.

शिवराजसिंह ने दशमत को पांच लाख रू. की मदद और डेढ़ लाख रू. का घर देकर मामले को ठंड़ा तो कर दिया है लेकिन अभी बहुत कुछ और भी है. मामला दबाने के लिए पुलिस ने जो साजिशे की, शर्मा और रसूखदारों ने जो हथकंडे अपनाए वह बेहद गंभीर हैं. जिसने वीडियो बनाया उस दुकानदार साहू और इसे वायरल करने वाले आदर्श शुक्ला को प्रवेश शुक्ला के परिवार ने मनगढंत कहानियां बनाकर पुलिस से प्रताडित करवाया गया है. सबसे बड़ी बात हालातों से घबराया दशमत अब प्रवेश शुक्ला को छोड़ने की गुहार लगा रहा है. क्योंकि वह जानता है कि दबंगों के बीच उसका रहना आसान नहीं है.  

मध्यप्रदेश आदिवासियों पर होने वाले जुल्म की फेहरिस्त में नंबर वन है. 2018 से लेकर 2021 तक 33 हजार से ज्यादा मामले यहां दर्ज हैं. एट्रोसिटी एक्ट, पेसा एक्ट के बावजूद आदिवासियों के खिलाफ अत्याचार के मामले कम नहीं हुए हैं. गो हत्या के आरोप में लिंचिंग के मामले हैं. सत्ता के करीबी संगठनों के नेता घिर रहे हैं. जिन आइएएस अफसरों को आदिवासियों के हक और अधिकारों की रहनुमाई करनी है वे ही उनकी जमीनें हथिया रहे हैं.  अपराध के शक में थानों में पिटाई हो रही है,  किसी महिला को जिदां जलाना, बलात्कार  सैकड़ों मामले हैं बस जगह और जुल्म का नाम बदलने की जरूरत है.

वीडियों कांड के बाद एक दशमत को लेकर  हल्ला मचा हुआ  है. लेकिन ऐसे कई गुमनाम दशमत है जिनकी लड़ाई अभी जारी है. आजादी के 75 साल के बाद भी प्रदेश का 21 फीसदी यह समाज उस नीचले पायदान है जहां से मंजिल बहुत दूर दिखाई दे रही है. 48 फीसदी बच्चे 8 वीं के बाद पढ़ाई छोड़ रहे हैं. सिर्फ 1.7 फीसदी कॉलेज तक पहुंच पा रहे हैं. सिर्फ 3.5 फीसदी लोगों के पास महीने की फिक्स आमदनी है. 75 फीसदी से ज्यादा रोज की मजदूरी पर बसर कर रहे हैं. आदिवासी इलाकों में कुपोषण सबसे ज्यादा है. वहीं सेहत की हालत भी बहुत खराब है. सरकार की योजनाएं उन तक नहीं पहुंच पा रही है. न राशन कार्ड न आधार कार्ड.

आदिवासियों को चुनावी एजेंडा मान बैठे राजनीतिक दल किस कदर वोट की राजनीति में जकड़े हुए हैं, यह तस्वीर भी हैरान करने वाली है. इंदौर जैसे शहर में छह दिन में 20 बच्चे सरकारी अस्पताल में दम तोड़ देते हैं. 24 घंटे में दो बच्चे मौत के मुंह में समा जाते हैं लेकिन पूरी राजनीति दशमत के पेशाब कांड पर घूमती दिखाई देती है. इन बच्चों का कोई वोट बैंक नहीं है. इसलिए इतनी बड़ी घटना के बाद भी राजनीतिक सन्नाटा है. बच्चों के ही अपहरण की सनसनीखेज खबर है लेकिन उस पर बात करने वाला न तो सत्ता पक्ष है न विपक्ष है. सरकार व्यवस्था से चलती है, और इसका सबसे बड़ा उदाहरण सड़क पर दिखता जब सरकार के नुमाइंदे प्रदेश के बड़े शहरों में ट्राफिक तक को नहीं संभाल पा रहे हैं.

सनसनीखेज, रेडीमेड मुद्दों को हथियाने में लगे राजनीतिक दलों से जनता के असली मुद्दे छूट चुके है. दलित, आदिवासी, पिछड़ों की राजनीति में पूरा चुनावी गणित उलझा हुआ है. जाति के थोकबंद वोट सत्ता और विपक्ष दोनों को ही डरा रहे हैं. जनता के असली मुद्दों से राजनीति भटकती दिखाइ दे रही है. जिसके कारण गुड गर्वनेंस जिसे की बेहतर व्यवस्था कहे, वह मुद्दा चुनावी एजेंडे से बाहर हो चुका है.

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